उच्चतम न्यायलय ने #सबरीमला मंदिर पर अपना निर्णय सुनाते ही चहुँओर लट्ठमलठ्ठी प्रारम्भ हो गई थी। #उदारवादी/ #लिबरल, प्रगतिशील तथा #नारीवादी/ #फेमिनिस्ट जन बधाइयाँ देने लगे, तो परम्परावादी सनातन धर्मी इस निर्णय को गरियाते दिखे। दक्षिणपन्थ/राईट विंग की सेनाएं इन दोनों शिविरों में बँटी दिखीं। तर्कों-वितर्कों और कुतर्कों के बीच दो बातें स्पष्ट थीं –
१. पक्ष-विपक्ष दोनों ही महिलाओं के सम्मान को सर्वोच्च मानते हैं।
२. दोनों ही पक्षों में विषय की मूलभूत जानकारियों का अभाव है।

इसलिए हमने निर्णय लिया कि लोगों को इन तथ्यों से अवगत कराया जाए। परंतु सबसे पहले तो वे सभी जो मिठाइयाँ बाँटते हुए इसे महिलाओं की जीत बता रहे हैं, वे जान लें कि पहली बात तो ये कि अब इस निर्णय पर रिव्यू पेटिशन फ़ाइल किया जा रहा है, मने, ये लड्डू आप सभी के "हाथ तो आया, पर मुँह ना लगा"... और दूसरी बात ये कि इस प्रोपेगंडा और झूठ की जीत को "महिलाओं की जीत" कह कर भगवान अय्यप्पा की महिला भक्तों का अपमान ना करें... जिन्होंने #ReadyToWait के नाम से आप के विरुद्ध मोर्चा सम्हाला हुआ है।

५ जजों के पैनल में जहाँ ४ पुरुषों ने "महिलाओं को समानता का अधिकार" दिलाया, वहीं इकलौती महिला जज ने उनके विरुद्ध निर्णय दिया था। ये उन न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा जी के निर्णय का ही प्रभाव है कि इस खंडपीठ के संयुक्त निर्णय पर अब रिव्यू पेटिशन फ़ाइल की जा रही है। इसलिए, सर्वप्रथम तो इन सभी "रेडी टू वेट" का मोर्चा सम्हालने वाली सनातनी हिन्दू महिलाओं और न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा जी को मेरा नमन। धर्मरक्षा में सनातनी स्त्रियों के योगदान पुरुषों से कभी कम नहीं रहे – जब जब राजपूतों ने साका किया, तब तब राजपूत माताओं ने जौहर। आज इसी शृंखला में एक और कड़ी जुड़ गई है।

अब आते हैं इस पूरे विषय के मुख्य बिंदुओं पर – सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश पर रोक क्यों है?

तो पहली बात तो ये है कि महिलाओं के प्रवेश पर रोक नहीं है, १० से ५० वर्ष की आयु के बीच की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। इसके पीछे के कारणों को समझने के पहले आपको ये समझना होगा की 'अय्यप्पा दीक्षा' क्या है?

तो, पहली बात तो ये कि सबरीमला मंदिर सदा खुला नहीं रहता. इसके पट खुलने का समय या अवधि है -
१. मंडलपूजा, जो कि लगभग १५ नवम्बर से २६ दिसंबर का समय है.
२. मकर संक्रांति (१४ जनवरी)
३. महाविष्णु संक्रांति (१४ अप्रैल) और
४. मलयाली कैलंडर के हर महीने के पहले ५ दिन.

अब, यहाँ भगवान्द अय्यप्पा के दर्शन पाने के लिए आनेवाले भक्त आने से पूर्व ४१ दिनों का कठिन व्रत रखते हैं.

जी हाँ! स्वामी अय्यप्पा के भक्त सबरीमला आने से पूर्व 'अय्यपा दीक्षा' लेते हैं और ४१ दिन का कठिन व्रत रखते हैं, जिसमें वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, काले वस्त्र धारण करते हैं और जहाँ कहीं जाते हैं, नंगे पैर ही जाते हैं। मदिरापान का निषेध होता है. दिन में तीन बार स्नान और चटाई पर सोना होता है. पुरुष इस अवधि में दाढ़ी भी नहीं काटते। यहाँ ४१ दिनों के व्रत के पीछे भी रोचक कारण है – सौर मने सोलार कैलेंडर के अनुसार वर्ष के ३६५ दिन होते हैं और लूनार कैलेंडर के अनुसार ३२४... तो इनके बीच का अंतर हुआ ४१ दिनों का। इन्हीं ४१ दिनों में व्रत का पालन कर स्वामी अय्यप्पा के भक्त अपने देवता के दर्शनों के लिए सबरीमला आते हैं।

जैसा कि हमने अपने पिछले विडियो में बताया था, अय्यप्पा दीक्षा कोई भी ले सकता है - यहाँ सवर्ण-दलित, धनी-निर्धन जैसा कोई भेद नहीं होता. यहाँ तक इस दीक्षा के पश्चात्, व्रत के समय लोग इन व्रतधारियों को 'स्वामी' कह कर सम्बोधित करते हैं - अब वो व्यक्ति चाहे कोई फेमस फिल्मस्टार हो, या रिक्शा-चालक - वो केवल "स्वामी" होगा... सब के बीच कोई अंतर नहीं, सारे एक समान! मंदिर के बाहर जो महावाक्य लिखा है "तत्त्वमसि" अर्थात "तुम भी वही (ब्रह्म) हो" - ये एक-दूजे को "स्वामी" कह कर संबोधित करना, उसी महावाक्य का पालन है - एक दूसरे में उस ब्रह्म के अंश का सम्मान है.

इन ४१ दिनों में मदिरा-पान का निषेध होने के कारण ये एक प्रकार से कई लोगों को इस दुर्व्यसन का आदी होने से रोकता है. सब कोई साथ मिल कर इस व्रत का पालन करते हैं, जिससे परिवार-समाज का ताना-बाना सुदृढ़ होता है - आज के न्यूक्लियर फॅमिली के समय में ये कितना बड़ा वरदान है, इसपर विचार करियेगा.

एक प्रकार से सबरीमला मंदिर पुरुषों को एक एक्सक्लूसिव स्पेस... एक  विशेष-निजी स्थान उपलब्ध कराता है, जहाँ सब अपने जीवन से निगेटिविटी/नकारात्मकता से छुटकारा पा पाते हैं. अब चूँकि वे इस यात्रा पर आए होते हैं, उनके परिवार की महिलाएं पीछे घर में महिलाओं के कार्यक्रमों के आयोजन के लिए समय पा जाती हैं. अर्थात, पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए भिन्न प्रकार की व्यवस्था है, जिनके दोनों को लाभ मिलते हैं.

अब इसमें जिन लोगों को महिलाओं के साथ भेद-भाव दिखता है, वे ये जान लें कि केरल ही नहीं, भारतभर में ऐसे कई मंदिर हैं जिनमें केवल महिलाओं को ही प्रवेश की अनुमति है, पुरुषों का प्रवेश निषेध है! दक्षिण-भारत में पोंगल त्यौहार पर, महिलाएं घर से बाहर मीठा-चावल पकाती हैं जिसे 'पोंगल' कहते हैं. इस दिन मानों सारी सडकों पर महिलाओं का आधिपत्य हो जाता है और पुरुष घर के भीतर बैठते हैं. भारतीय संस्कृति में ऐसी कई रीतियाँ हैं, जिनमें महिलाओं और पुरुषों के लिए पृथक व्यवस्था होती है. इसका अर्थ ये तो नहीं कि भेदभाव किया जा रहा है. उदाहरण के रूप में, 'नकटौरा' की बात ही ले लीजिये - विवाह समारोह में ये महिलाओं का अपना कार्यक्रम होता है, जहाँ पुरुषों का आना मना होता है. पुरुषों के ना होने के कारण, महिलाएं खुल कर हँसी-ठिठोली करती हैं. देखिये, यदि समान अधिकारों के नाम पर सबके लिए सबकुछ एक जैसा ही कर दिया जाए, तो जीवन बहुत नीरस हो जाएगा, नहीं?



अब दूसरी बात ये है, कि इस मंदिर में भगवान् अय्यप्पा ब्रह्मचारी रूप में प्रकट हैं। नहीं, गलत मत समझिये कि उनके ब्रह्मचर्य को किसी नारी से भय है – ना ऐसा है, ना कभी हो सकता है। भक्ति की बात है, कि जो जग का पालन-पोषण करता है, उसे हम प्रशाद चढ़ाते हैं, भोग लगाते हैं – क्या उस देवता का पेट भर पाने का हमारा सामर्थ्य है? परंतु यहीं भावनाओं की बात आती है – भगवान भावनाओं के भूखे हैं। और भक्त जो भी चढ़ाए, वो उसमें अपनी भावना ही चढ़ा रहा है, भक्ति ही अर्पण कर रहा है।


भगवद्गीता में श्रीकृष्ण, ९वें अध्याय के २६वें श्लोक में अर्जुन से कहते हैं कि "यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्ते, पुष्प, फल अथवा जल अर्पण करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ" - यहाँ भक्ति और प्रेम का महत्व समझाया गया है.

देवी-देवता इस निर्गुण-निराकार ब्रह्म का सगुण रूप हैं। सगुण हैं, इसका तात्पर्य ये हुआ कि उनका स्वभाव भी है – एक पूरी पेर्सोनालिटी है। एक ओर शिव जी थोड़े में ही प्रसन्न हो जाते हैं और भोले-भाले हैं, तो दूसरी ओर श्री कृष्ण नटखट और चतुर हैं। अब भक्त भी एक ही भगवान् को भिन्न रूप में पूजते हैं – कभी श्रीकृष्ण 'लड्डू गोपाल' के नाम से बच्चे बन जाते हैं और भक्त इनपर वात्सल्य रुपी भक्ति लुटा कर धन्य हो जाता है, तो कभी कोई अर्जुन या सुदामा की भाँति सखा रूप में पूजता है। मीराबाई ने इन्हें पति माना, तो द्रौपदी ने सखा! यहाँ तक कि 'सखी सम्प्रदाय' में पुरुष भक्त स्वयं को इन्हीं कृष्ण की गोपियाँ मान कर उन्हें पूजते हैं। इतना सब कहने का तात्पर्य ये है कि भक्ति में देवता के स्वभाव का महत्त्व होता है और उस स्वाभाव के अनुसार उन्हें प्रसन्न करने हेतु समर्पित भक्त की भावना का। यहाँ स्वामी अय्यप्पा के सबरीमला मंदिर में नर-नारी सभी एक समान हैं, परन्तु भगवान् यहाँ ब्रह्मचारी रूप में विराजमान है... और ठीक इसी प्रकार, वे 
१. Kulathupuzha/कुलाथूपुझा/कुलाथूपुळा में बाल रूप में
२. अचनकोइल में गृहस्थ रूप में और 
३. अर्यांकवु में वानप्रस्थ रूप में विराजते हैं.

अब इस झूठ का प्रसार किया गया की सबरीमला में महिलाओं को इसलिए प्रवेश नहीं दिया जाता क्योंकि माहवारी को... मेनस्ट्रूएशन को 'अपवित्र' माना जाता है - ऐसा बिलकुल नहीं है. एक ब्रह्मचारी गर्भ धारण करने योग्य आयु की स्त्री से दूर रहता है. इसके अपने कारण हैं, परन्तु ये "अपवित्र" वाला तर्क ना केवल झूठा है, अपितु बहुत ही बड़ा-भद्दा आरोप है.... जो कि स्पष्ट रूप से इस मंदिर की अपकीर्ति फ़ैलाने... डीफेम करने का षड्यंत्र है.


स्वयं न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा जी ने भी अपने निर्णय में कहा कि स्वामी अय्यप्पा के सैकड़ों मंदिरों में से किसी मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक नहीं है, क्योंकि वहाँ भगवान् ब्रह्मचारी रूप में वास नहीं करते। परंतु चूँकि सबरीमला में वे ब्रह्मचारी रूप में हैं, तो १० से ५ ० वर्ष की आयु की महिलाओं के प्रवेश पर रोक है। अब इस रोक को सब 'पेट्रिआरकल डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वीमेन' अर्थात 'पितृसत्ता का महिलाओं के साथ भेदभाव' बता रहे हैं... तो ये हम क्यों और कैसे मान लें कि इस रोक को पुरुषों ने लगाई?

जिस धर्म में वैदिक ऋचाओं की द्रष्टा अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि ऋषिकाएं भी रहीं, जिस संस्कृति में ऐसे मंदिर हैं, जिनमें पुरुषों का प्रवेश वर्जित है, जहाँ केवल महिलाऐं ही जाती हैं, वहाँ ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि इस प्रकार की व्यवस्था के पीछे किसी तपस्विनी माताओं का आशिर्वाद रहा हो - जिन्होंने समाज में ना केवल महिलाओं के लिए पृथक न 

No comments:

Post a Comment

Popular Posts

Advertising Box